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दूसरा गुणस्थान है सास्वादन सम्यग्दृष्टि। सम्यक्त्व पाँच प्रकार का होता है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, सास्वादन और वेदक! अनन्ततानुबन्धी चतुष्क (क्रोध,मान,माया,लोभ) एवं दर्शन मोहनीय त्रिक (मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह, सम्यक्त्व मोह) इन सात प्रकृतियों का उपशम होने से औपशमिक, क्षय होने से क्षायिक व इनके विपाकोदया का अभाव होने से क्षयोपशम सम्यक्तव होत है। औपशमिक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति जब गिरता हुआ प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करता है गिरने के बाद व प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करने से पूर्व की जो अवस्था है वह सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुणस्थान है और इस गुणस्थान वाला प्राणी ही सास्वादन सम्यक्त्व वाला होता है।
उदाहरणार्थ वृक्ष से गिरने वाला फल जब तक पृथ्वी पर नहीं आ जाता तब तक वह इस स्थिति मे रहता है जो वृक्ष और पृथ्वी दोनों से ही सम्बन्धित नहीं होती। वैसे ही सम्यक्त्व से च्युत होने वाला जब तक मिथ्यात्व में नहीं आता, एक ऐसी स्थिति में गुजरता है जो न तो सम्यक्त्व से सम्बन्धित होती है और न मिथ्यात्व से। फिर भी पूर्व सम्यक्त्व का यहाँ पर आस्वादन रहता है। अतः इसी अपेक्षा से इस अवस्था को सास्वादन सम्यक्त्व बतलाया गया है। यह भी विशुद्धि की अपेक्षा से गुणस्थान है, गिरने की अपेक्षा से नहीं। पतन तो मोह कर्म के उदय से होता है अतः उदय गुणस्थान नहीं विशुद्धि का जितना अंश है वह गुणस्थान है।
यहाँ यह प्रश्न भी होता है कि तीसरा गुणस्थान तो मिश्र दृष्टि है एवं दूसरा सम्यग् दृष्टि, फिर इसका स्तर नीचा क्यो ? एक दृष्टि से तो यह ठीक है, पर मिश्र वाले की गति दोनों और हो सकती है, वह आगे भी बढ सकता है एवं नीचे भी गिर सकता है, पर दूसरे गुणस्थान वाला तो गिरेगा ही। इसी अपेक्षा से इसको दूसरा एवं मिश्र को तीसरा गुणस्थान कहा गया मालूम होता है।
यह गुणस्थान चारों गतियों में पाया जाता है पर यह शाश्वत नहीं है। इस स्थान में जीव कभी मिलते हैं कभी कहीं। उत्कृष्ट असंख्य मिल सकते हैं क्योंकि सम्यक्त्वी असंख्य हैं उनमें गिरने वाले भी असंख्य हो सकते है।
इस गुणस्थान की स्थिति सिर्फ 6 आवलिका है (एक मुहुर्त-अड़तालीस मिनट की 16777216 आवलिका होती है।) फिर वह प्रथम गुणस्थान में आ जाता है।
यह गुणस्थान एकेन्द्रिय जीवों में व विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में भी नहीं होता। औपशमिक सम्यक्त्व से गिरते समय यदि आयु पूर्ण कर कोई जीव विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय में जन्म धारण करता है। तो उसकी अपर्याप्त अवस्था की स्थिति में यह गुणस्थान हो सकता है अन्यथा नहीं।
तीसरा मिश्र दृष्टि गुणस्थान है। जीव-अजीव, साधु-असाधु, धर्म-अधर्म, सन्मार्ग-कुमार्ग, मुक्त और अमुक्त इन दस बोलों को या किसी एक को भी विपरीत समझने वाला मिथ्या दृष्टि व इनमें सन्देह रखने वाला मिश्र दृष्टि गुणस्थान होता है। जैसे जीव है या नहीं ? वीतराग द्वारा कथित तो है पर देखने में नहीं आता। ऐसे ही अन्य बोलों के प्रति शंकाशील रहने वाला मिश्र दृष्टि कहलाता है।
यहाँ पर जो सन्देह है वह गुणस्थान नहीं, वह तो हेय है, सम्यक्त्व का अतिचार है। फिर वह गुणस्थान कैसे हो सकता है ? अतः मिश्र दृष्टि वाला जीव जो तत्व या तत्वों पर सम्यक् श्रद्धा रखता है, वह गुणस्थान है।
इस गुणस्थान वाला जीव डांवाडोल स्थिति में रहता है। अतः आयुष्य कर्म का बंघ व मृत्यु भी यहाँ नहीं होती।
यह गुणस्थान भी अशाश्वत है। यदि रहे तो उत्कृष्ट असंख्य जीव भी इस गुणस्थानवर्ती रह सकते है। यह चारों गति में पाया जाता है, पर संज्ञी पर्याप्त अवस्था वालों को ही यह प्राप्त होता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है। बाद में या तो ऊपर चतुर्थ आदि गुणस्थानों में या नीचे प्रथम गुणस्थान में चला जाता है।
चतुर्थ अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान है। जो जीवादि सभी तत्वों पर सम्यग् श्रद्धा रखता है वह सम्यक् दृष्टि है। इस अवस्था में न तो विपरीत श्रद्धा होती है और न सन्देह। सम्यक्त्व के शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये पाँच लक्षण कहे जाते हैं, जो कि इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति में पाए जाने चाहिए। अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न होना शम है, मोक्षाभिलाषा संवेग है, भव विराग निर्वेद है, निरवद्य दया अनुकम्पा है, आत्मा, कर्म आदि विषयों में दृढ़ श्रद्धा रखना आस्तिक्य है। इन पाँचों लक्षणों में से शम एवं आस्तिक्य ये दो मूल लक्षण हैं। इनके बिना सम्यक्त्व रह नहीं सकता और तीन उत्तर लक्षण हैं।
इस स्थिति में आत्मा अपने आपको परख लेती है व हेय और उपादेय का विवेक लिए चलती है।
इस गुणस्थानवर्ती जीवों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं वेदक चारों प्रकार का सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के आखिरी समय में प्रकृति का प्रदेशोदय में जो सूक्ष्म वेदन रहता है उसी को वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है। यह सम्यक्त्व एकबार से अधिक नहीं आता एवं उसके बाद अवश्य ही क्षायिक सम्यक्त्व आता है।
श्रद्धा पूर्ण होने पर भी विरति इस स्थान में बिलकुल नहीं होती। मिथ्यात्व आश्रव नहीं होने पर भी अविरत आश्रव के कारण निरन्तर पाप कर्म यहाँ पर लगता रहता है।
यहाँ अविरत सावद्य है, हेय है, गुणस्थान नहीं है। गुणस्थान तो सम्यक्त्व है और वह उपादेय है। साहचर्य के कारण तथा पहचान के लिए इस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग् दृष्टि दे दिया है।
यों तो यह गुणस्थान चारों ही गति में होता है, पर पाँच अनुत्तर विमान, नव लोकान्तिक एवं गृहस्थ तीर्थकरों में तो एक मात्र यही होता है। यह गुणस्थान शाश्वत् है, हर समय इसमें असंख्य जीव मिलते है। इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त एवं उत्कृष्ट 33 सागर की है।
पंचम गुणस्थान देश-विरति नाम से प्रसिद्ध है। इस गुणस्थान मे सम्यक्त्व के साथ देशविरति भी होती है। अन्तरात्मा की अत्याग रूप आशा वांछा को अविरत आश्रव कहा जाता है। इसका पूर्ण निरोध तो यहाँ पर नहीं होता पर अंशतः होता है। इसी आंशिक निरोध की अपेक्षा से श्रावक के पाँच क्रियाओं में से अविरत की क्रिया का न होना भगवती एवं प्रज्ञापना सूत्र में कहा है। साथ ही भगवती, स्थानांग आदि अनेकों स्थानों पर श्रावक को व्रताव्रती, संयतासंयति, धर्माधर्मी, प्रत्याख्यान्यप्रत्याख्यानी आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। ऊपर वाले कथन से यह सिद्ध होता है कि श्रावक को अविरत की क्रिया नहीं होती परन्तु नीचे वाले अभिधानों से लगता है कि यदि उसके अविरत की क्रिया न हो तो फिर उसे व्रताव्रती क्यों कहा गया है ? अविरत तो हो और अविरत की क्रिया न हो यह कैसे सम्भव हो सकता है ? निष्कर्ष यह है कि श्रावक के अविरत की क्रिया माननी ही पड़ेगी। एक प्रश्न उठ सकता है कि ऐसा मानने से तीन क्रिया के कथन की संगति कैसे हो सकेगी ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि जैसे भगवती में ही धर्मास्तिकाय के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं में होने का निषेध केवल पूर्णता की दृष्टि से ही किया गया है आंशिकता की दृष्टि से तो वह वहाँ है ही। उसी प्रकार से यहाँ भी अविरत की क्रिया का जो निषेध किया गया है वह पूर्णता की दृष्टि से ही है। आंशिक क्रिया तो है ही।
भगवती सूत्र के ही एक दूसरे कथन से भी यह सिद्ध होता है कि श्रावक के अविरत की क्रिया होती है वहाँ कथन किया गया है कि कोई गाथापति अपने चोरी गए हुए माल का अन्वेषण करता है तब उसे पाँच क्रियाओं में से चार का होना तो निश्चित ही हैं। मिथ्याप्रत्ययिकी क्रिया के लिए विकल्प है कि वह किसी के होती है और किसी के नहीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्वेषणकर्ता यदि श्रावक है तो उसके चार क्रियाएं होगी और यदि मिथ्या दृष्टि है तो उसके पाँच। इस प्रकार भगवती के इन दोनों परस्पर विरोधी पाठों की संगति इस अपेक्षा दृष्टि से ही बैठ सकती है कि जहाँ अविरत की क्रिया का निषेध है वहाँ पूर्णतः की दृष्टि से है और जहाँ कथन है वहाँ आंशिक दृष्टि से है, अन्यथा दोनों पाठ एक दूसरे के विरूद्ध चले जाते है।
सम्यक्त्व के बाद जो साधारण-सा भी त्याग करता है वह भी देश विरति है एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी या आजीवन अनशन करने वाला भी देशविरति है। देश का अर्थ है अंश जो थोड़ा भी हो सकता है एवं अधिक भी। जब तक पूर्ण विरति नहीं है तब तक देश विरति है। इस प्रकार यहाँ भी यही समझना चाहिए कि श्रावक के जितनी विरति है वही उसका गुणस्थान है, अविरति आशा वांछा गुणस्थान नहीं है।
यह गुणस्थान भी शाश्वत है। असंख्य जीव इसमें निरन्तर मिलते हैं। चार गति में से सिर्फ दो गति में ही यह होता है। देशविरति मनुष्य संख्यात ही है क्योंकि अढाई द्वीप से बाहर मनुष्य नहीं होते। इससे बाहर असंख्य द्वीप समुद्रों में जो तिर्यंच हैं वे बिना साधु संग के ही जातिस्मरणादि से अपना पूर्वभव जानकर सम्यक्त्व एवं देश विरत पाते हैं और वे असंख्य हैं।
यह गुणस्थान संज्ञी पर्याप्त में ही पाया जाता है अन्य में नहीं। उनमें भी तीर्थंकर आदि त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों व अकर्म भूमि के मनुष्यों में नहीं होता। जयाचार्य ने चौबीसी की चौदहवीं गीतिका में कहा है कि-
जिन चक्री सुर जुगलिया रे वासुदेव बलदेव।
चौबीसी, ढाल 14
पंचम गुण पावे नहीं रे रीति अनादि स्वमेव।।
इस गुणस्थान की स्थिति कुछ कम क्रोड़ पूर्व की है। इस गुणस्थान में आयु पूर्ण करने वाले निश्चित रूप से वैमानिक देव होते हैं।
nice work piyush ji
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