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ग्यारहवां उपशान्त मोह गुणस्थान है, यहाँ मोह कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है। अत्र-स्थित-आत्मा वीतराग बन जाता हैं “अकषायो वीतरागः” कषाय का सर्वथा अभाव वीतरागता है। क्षपक श्रेण्यारूढ व्यक्ति इस गुणस्थान में नहीं आता। उपशम श्रेणी वाला जीव क्रमशः मोह को दबाता हुआ यहाँ पर पहुँचता है एवं यथाख्यात (यथा आख्याति तथा पालयति) चारित्र पालता है, तथा पापकर्म का बन्ध सर्वथा रोक देता है। यहाँ सिर्फ सात-वेदनीय का बन्ध होता है। जो कि पुण्य कर्म है। इस बन्ध को ईर्यापथिक कहते हैं। वीतराग के सिवाय अन्य जीवों का बन्ध साम्परायिक होता है “साम्परायिकः शेषस्य” सरागी के जो शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है उसे साम्परायिक कहते हैं।
इस गुणस्थाननवर्ती आत्मा की वीतरागता अन्तर्मुहुर्त से अधिक ठहर नहीं सकती। क्योंकि ऊपर का मार्ग बन्द है। यदि यहाँ आयु पूर्ण करे तो वह अनुत्तर विमान में चतुर्थ गुणस्थान में जाता है अन्यथा क्रमशः नीचे गिरता है।
आश्चर्य तो यह है कि इतनी उन्नत आत्मा को भी दबा हुआ मोह उदय में आकर नीचे तक भी ला गिराता है एवं अनन्त काल (देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन) तक यहाँ से उठने नहीं देता। वीतराग से च्युत होकर संसार परिभ्रमण करने वाले प्राणी संसार में हर समय मिलते हैं और वे संख्या में अनन्त होते हैं। आश्चर्य नहीं हम भी वहाँ तक पहुँचकर उस वीतरागता का अनुभव करके आए हुए हों।
अस्तु भविष्य में चाहे जो कुछ हो पर वर्तमान में इस गुणस्थानवर्ती जीव के पूर्ण वीतरागता होती है वह औपशमिक वीतरागता होती है अतः उस गुणस्थान का नाम है उपशान्त मोह गुणस्थान। वह उपादेय है वहाँ से वापिस गिरना गुणस्थान नहीं है।
यह गुणस्थान वर्तमान में तो बारहवें के सदृश ही है, पर यहाँ बहुत बड़ा भेद भी है कि इस गुणस्थान वाला भविष्य में अवश्य गिरता है जबकि बारहवें गुणस्थान वाला आगे बढ़कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
उदाहरण से इसे यों समझा जा सकता है कि जिस प्रकार वर्तमान के दो कोट्याधीशों में एक भविष्य के लिए निर्धन होने वाला है एवं दूसरे की सम्पत्ति स्थायी एवं बढ़ने वाली है। वहाँ उन दोनो की वर्तमान कोट्याधीशता में कोई अन्तर नहीं होता।
यह गुणस्थान भी अशाश्वत है, ग्रहण करने वाले यदि मिलें तो एक साथ 54 मिल सकते है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है।
बारहवाँ गुणस्थान क्षीण मोह गुणस्थान है। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ प्राणी क्रमशः मोह कर्म को नष्ट करता हुआ दशम गुणस्थान से सीधा यहाँ पहुँचता है, यहाँ वह मोह कर्म को आत्मा से सर्वथा दूर फैंक देता है। वीतरागी के साथ साथ वह क्षायिक चारित्री भी बन जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान की तरह यहाँ गिरने का भय नहीं रहता। यह अप्रतिपाती गुणस्थान है अतः आत्मा गुणों की ओर आगे ही बढ़ती है।
इसकी एवं ग्यारहवें गुणस्थान की वर्तमान अवस्था समान होती है। संयम स्थान भी एक ही होता है। परिणामों की भी सदृशता होती है। पिछले गुणस्थानों में एक ही चारित्र के संयम पर्यायों में जो अनंत गुणा अन्तर रहता है वह ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती यथाख्यात चारित्री में कतई नहीं रहता।
यद्यपि इस गुणस्थानवर्ती आत्मा की भूमिका अत्यन्त उन्नत तथा अप्रतिपाती होती है फिर भी उसमें छद्मस्थता अवशिष्ट रहती है। घाती कर्मों की औदयिक अवस्था का नाम “छद्म” है उस अवस्था में रहने वाला ’छद्मस्थ’ कहलाता है। इस गुणस्थान मे घाती कर्मों-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों का उदय रहता है। यहाँ जितने अंशों में आत्मगुण उपलब्ध होते हैं, परन्तु उन गुणों की पूर्णता क्षायिक भाव की अपेक्षा रखती है। वह यहाँ नहीं है।
उपर्युक्त तीनों कर्मों का उदय होते हुए भी यहाँ चारित्र पूर्ण है और वही गुणस्थान है तथा उपादेय है। इन तीनों का उदय गुणस्थान नहीं है वह तो हेय है। यद्यपि इन तीनों का उदय आत्मा को कोई अनिष्ट कर्म की और प्रवृत नहीं कर सकता और न आत्मा को पाप से भारी बना सकता है। परन्तु फिर भी वे स्वयं तो पाप ही होते हैं। चार घाती कर्मों में पाप बन्ध का कारण तो सिर्फ मोह कर्म ही होता है शेष तीन स्वयं पाप होते हुए भी पाप बन्ध के कारण नहीं बनते।
यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो एक साथ इसे ग्रहण करने वाले उत्कृष्ट 108 मिल सकते हैं। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है।
तेरहवां सयोगी केवली गुणस्थान है। मोह कर्म का नाश तो बारहवें गुणस्थान में ही हो जाता है। यहाँ अवशिष्ट तीन कर्मों को तोड़कर केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) केवल दर्शन (सर्वदर्शिता) और क्षायिक लब्धि (सर्वशक्तिमत्ता) प्राप्त कर ली जाती है। इस गुणस्थान में प्रविष्ट होते ही एक अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इससे आत्मा समस्त भूत भावी तथा वर्तमान के द्रव्य गुण पर्यायों को करामलकवत जान एवं देख लेती है।
ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम से ज्ञान में तरतमता पैदा होती है और उसके कारण ज्ञान के अनेक भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ये इसके मुख्य भेद होते हैं तथा अवग्रह, ईहा आदि मति के, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य आदि श्रुत के, हीयमान वर्द्धमान आदि अवधि के, ऋजुमति, विपुलमति आदि मनः पर्यव के अवान्तर भेद प्रभेदों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है। उन सब की यहाँ पर कोई अपेक्षा नहीं रह जाती है। यहाँ ज्ञान संबंधी समस्त आवरण दूर हो जाने से तरतमता विहीन एक ही परिपूर्ण केवल ज्ञान हो जाता है, अर्थात् पिछले सभी ज्ञान इसमें समा जाते हैं। वस्तुतः ज्ञान एक ही है। भिन्नता तो क्षयोपशम की विविध भूमिकाओं के कारण बनती है। जैसे-कोई रजत (चांदी) की शिला जमीन में गड़ी हुई हो और चारों ओर से परिपूर्ण आच्छादित हो कालान्तर में कुछ कारण उपस्थित होने पर जब वह एक तरफ से थोड़ी सी खुलती है तब लगता है कि यह कोई चांदी का टुकड़ा है, जब दूसरी ओर से थोड़ी सी खुलती है तब वह दूसरा चांदी का टुकड़ा सा लगता है। इसी तरह तीन, चार आदि टुकड़े मालूम होने लगते हैं । परन्तु जब मिट्टी पूर्णतः अलग हो जाती है तब पता चलता है कि पहले जो अलग अलग टुकड़े मालूम दे रहे थे वे सब इसी एक शिला के भाग थे। इसी प्रकार सब आवरण दूर होने से एक केवलज्ञान कहलाता है और उससे पूर्व उसकी आंशिक अवस्थाएं विभिन्नताओं से उल्लिखित की जाती है। केवल दर्शन को भी इसी तरह समझना चाहिए।
ये सब उत्तम वस्तुएं हैं ग्रहणीय हैं इन्हे ही गुणस्थान कहा जाता है। इतना होते हुए भी यहाँ पर तीनों ही योगों मनोवाक्काय की प्रवृत्ति चालू रहती है। यह प्रवृत्ति शुभ होती है। अतः उससे केवल पुण्य का ही बंधन होता है यद्यपि उस पुण्य बंध की स्थिति केवल दो समय ही होती है। वह गाढ बन्धन नहीं कर सकता, उस स्थिति में शुभ पुद्गल आते हैं, आत्मा के साथ एकीभूत होते हैं व तत्काल बिखर जाते हैं फिर भी वह बन्धन तो है ही। उसी शुभ योग के द्वारा प्रति समय निर्जरा भी होती रहती है, अतः शुभयोग को ग्रहणीय भी माना जाता है पर शरीर नाम कर्म के उदय से शुभयोग प्रवृत्त होता है एवं पुण्य बन्ध करता है, अतः वह गुणस्थान नहीं है वह तो छोड़ने योग्य है।
इस गुणस्थान में कुछ सर्वज्ञों के ही केवल समुद्घात होता है सबके नहीं। इसका कारण यह है कि जब किसी केवली का आयुष्य कर्म कम एवं वेदनीय कर्म अधिक रह जाता है तब उनको सम करने के लिए उसके आत्म प्रदेश स्वतः ही शरीर से बाहर निकलते हैं और लोक में व्याप्त हो जाते हैं। उस स्थिति में समय के मान की अपेक्षा में अधिक रहा हुआ वेदनीय कर्म प्रदेश वेद्य होकर नष्ट हो जाता है। यह समुद्घात सिर्फ उनके होता है जिनका आयुष्य केवल ज्ञान होने के समय 6 माह से कम होता है।
इस समुद्घात का कालमान केवल आठ समय का होता है। प्रथम समय में दण्डाकार आत्मप्रेदश निकलते हैं जो ऊपर व नीचे लोकान्त तक चले जाते है। दूसरे समय में कपाटाकार अर्थात् उस दण्ड के दो पाश्र्व से निकलने वाले आत्म-प्रदेश पूर्व और पश्चिम में या उत्तर और दक्षिण में लोकान्त तक चले जाते हैं, जो कपाट के आकार से समझे जा सकते है। तीसरे समय में मन्थान के आकार में अवशिष्ट दो पाश्र्वों से निकलने वाले आत्म प्रदेश भी लोकान्त तक चले जाते हैं। चौथे समय में मन्थान के बीच का अन्तर प्रदेशों से भर जाता है। इस प्रकार उस समय लोक के प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक आत्म प्रदेश हो जाता है। ठीक इसके विपरीत क्रम रूप से आत्म प्रदेश अगले चार समयों में वापिस मूल शरीर में आ जाते हैं। इन आठ समयों में महा निर्जरा होती है। चैथे समय में जब सारे लोक में आत्म प्रदेश व्याप्त हुए होते हैं तब एक साथ जो कर्म दूर होते हैं और पाँचवे समय में आत्म-प्रदेशों के संकुचित हो जाने पर वे आत्म प्रदेशों से विलग हुए कर्म पुद्गल समस्त लोक में व्याप्त होने के कारण अचित्त महास्कन्ध नाम से पुकारे जाते हैं।
इस समुद्घात के पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग, दूसरे, छट्ठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र काय योग व तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काय योग रहता है। चौथे, पाँचवें और छट्ठे समय में जीव अनाहारक रहता है। केवल समुद्घात करने वालों में सात योग बाकी केवलियों में पाँच योग होते हैं। यह गुणस्थान शाश्वत है। दो करोड़ जीव इसमें हर समय मिलते हैं। उत्कृष्ट नव करोड़ भी मिल सकते हैं। इसकी स्थिति देशोन क्रोड़ पूर्व है।
इस गुणस्थान के अन्त में योग निरोध प्रारम्भ हो जाता है। योग निरोध का क्रम इस प्रकार है:- पहले स्थूल काय योग, फिर स्थूल वचन योग, फिर स्थूल मनोयोग, फिर सूक्ष्म मनोयोग, फिर सूक्ष्म वचन योग, फिर सूक्ष्म काय योग। सूक्ष्म काय योग तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक रहता है। यहाँ पर सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है।
चौदहवाँ अयोगी केवली गुणस्थान है। यहाँ पर पूर्णतया आश्रव निरोध व संवर प्राप्ति होती है। कर्मों का बन्ध सर्वथा रूक जाता है। वीतरागी होने पर भी जो शुभ योग के द्वारा द्विसमयक स्थिति वाला सात वेदनीय बन्धन होता था वह भी अवरूद्ध हो जाता है। यहाँ आत्मा शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाती है, अर्थात् मेरू की तरह निश्चल और निष्प्रकम्प अवस्था को प्राप्त हो जाती हैै। इस अवस्था में प्राणी सर्वथा अनाहारक रहता है।
यहाँ पर खाना-पीना, बोलना, चलना, धर्मोपदेश, प्रश्नोत्तर आदि शुभ यौगिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाने तथा लेश्यारहित हो जाने पर भी चारों ही अघाति कर्म अवशिष्ट रहते हैं इससे वह संसारी व सशरीरी कहलाता है। इस अवस्था तक आत्मा के साथ औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीनों शरीर लगे रहते हैं।
यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब शुभयोग यहाँ पर नहीं है तो फिर अवशिष्ट कर्मों को दूर करने वाला कौन होगा ? यदि शुभ योग है तो फिर पुण्य बन्ध तो होगा ही इस स्थिति में आत्मा अयोग और अबन्ध अवस्था को कैसे प्राप्त हो सकती है ?
उत्तर भी स्पष्ट है। यद्यपि वहाँ पर शुभयोग नहीं होता पर शुभयोग जन्य आत्मा का वेग वहाँ पर अवश्य रहता है। उसी के बल पर आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त होती है।
इसे उदाहरणपूर्वक यों समझा जा सकता है कि – जैसे इंजिन के बिना डिब्बे चल नहीं सकते, फिर भी कहीं कहीं यह देखने को मिलता है कि इंजिन से ढकेला गया डिब्बा इंजिन के बिना भी कुछ दूर तक चलता रहता है, वहाँ इंजिन नहीं होता पर इंजिन के द्वारा प्रदत्त वेग होता है और उसी के बल पर वह चलता है। इसी तरह शुभयोग के बिना निर्जरा नहीं होती परन्तु चौदहवें गुणस्थान में शुभयोग न होने पर भी उससे उत्पन्न वेग से वहाँ निर्जरा तो होती है पर शुभयोग न होने के कारण पुण्यबन्ध नहीं हो पाता।
इस तरह इस थोड़े समय की अबन्ध अवस्था में रहकर जीव सम्पूर्ण कर्म दूर कर मोक्ष प्राप्त करता है। इसकी स्थिति पाँच हृस्व अक्षर उच्चारण जितनी होती है। सिद्ध होने एवं समस्त कर्म छूटने का समय एक ही होता है। इसीलिए जयाचार्य ने कहा है:-
प्रथम समय ना सिद्ध चार कर्मां ना अंश खपावे।
झीणी चर्चा, गुणस्थान दिग्दर्शन
चौथे ठाणे प्रथम उद्देशे बुद्धिवन्त न्याय मिलावे।।
समस्त कर्मों से छूटना ही मोक्ष है। यह आत्मा की पूर्ण पवित्रता की स्थिति होती है। निर्जरा और मोक्ष में इतना ही अन्तर है कि निर्जरा आत्मा की अपूर्ण विशुद्धि है, जबकि मोक्ष पूर्ण विशुद्धि। निर्जरा के कारणभूत शुभोपयोग को भी निर्जरा कहा जाता है। पर वह औपचारिक निर्जरा होती है। यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो एक साथ ग्रहण करने वाले 108 मिल सकते है।