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भारतीय संस्कृति में साधना और शुद्धि के बीच एक गहरा सम्बन्ध निरुपित किया गया है। प्रातःकालीन पूजा मन्त्र-जप आदि अनुष्ठानों से पूर्व स्नान को प्रायः अनिवार्य अंग की तरह व्याख्यायित किया गया है। जल में जीवन की घोषणा करने वाली जैन परंपरा में भी मंदिरों में पूजा-विधि के साथ स्नान-शुद्धि को अनिवार्य माना गया। शरीरिक-शुद्धि के लिहाज से उसकी उपयोगिता निर्विवाद है, पर क्या आत्म-शुद्धि के लिए भी यह (स्नान-शुद्धि) उतनी ही उपयोगी है?
यह सही है कि स्नान करने के पश्चात हम शारीरिक रूप से खुद को तरोताजा महसूस करते हैं। आलस्य का प्रभाव भी कुछ हद तक कम हो जाता है। वहीँ जैन परंपरा में ज्ञान के अतिचारों में वर्णित अस्वाध्याय के कारणों— यथा मल-मूत्र, वीर्य रक्त आदि अशुभ तत्वों की विशुद्धि भी हो जाती है, जिनके रहने पर स्वाध्याय नहीं किया जा सकता।
जैन आगमों में तीर्थ-स्नान से सम्बंधित एक प्रश्न के उत्तर में भाव स्नान का बेहद खूबसूरती से वर्णन किया गया है—
धम्मे हरए बम्भे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेस्से।
जहिंसि ण्हासो विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पजहामि दोषं।।
अर्थ- अकलुषित, आत्मा को प्रसन्न करने वाली शुभ लेश्या रूप धर्म, जलाशय है और ब्रह्मचर्य रूप शांति तीर्थ है। जहाँ स्नान करके मैं विमल, विशुद्ध और शीतल होकर पाप को दूर करता हूँ।
एयं सिणाणं कुसलेहि दिट्ठं, महासिणाणं इसिणं पसत्थं।
जहिंसि ण्हाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाण पत्तए।।
अर्थ- तत्त्व ज्ञानियों ने यह स्नान देखा है। यही वह महास्नान है जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है। जिस स्नान से महर्षि लोग विमल और विशुद्ध होकर उत्तम स्थान— मोक्ष को प्राप्त हुए हैं।
उत्तराध्ययन12/46-47
हरिकेशी मुनि द्वारा प्रतिपादित इस भाव-स्नान का प्रयोग एक स्नान-मंत्र की तरह जप-साधना अथवा अन्य साधना मन्त्रों के पूर्व किया जा सकता है। अर्थ-चिंतन के साथ इस मन्त्र का प्रयोग करें, साधना को विशेष गहराई मिलेगी। वैसे नियमित रूप से द्रव्य-स्नान (जल-स्नान) के बाद भी इस मंत्र के साथ भाव स्नान कर नकारात्मक उर्जाओं से अपने तन, मन और आत्मा की विशुद्धि की जा सकती है।
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