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एक सामान्य व्यक्ति अपनी प्रत्येक जानकारी लिए दूसरे पर आश्रित रहता है । प्रत्येक कथन का कोई न कोई संदर्भ अवश्य होता है । कहा जाता है ‘मैंने सुना है कि’ , ‘सूत्रों के अनुसार’ , ‘ अमुक पुस्तक में पढ़ा’ , ‘पुराने लोग कहा करते थे’ , ‘लोकोक्ति है’ आदि ऐसे अनेक प्रयोग भाषा-व्यवहार में उपयोग किए जाते हैं परन्तु जब आगमों के द्वारा भगवान महावीर की वाणी से साक्षात्कार होता है तब वे फरमाते हैं ‘ त्ति बेमि ‘ अर्थात् ‘ ऐसा मैं कहता हूं ‘ क्योंकि भगवान महावीर को किसी संदर्भ या प्रमाण की अपेक्षा नहीं । वे स्वयं प्रमाण है , उनका ज्ञान प्रमाण है । उनकी वाणी दूसरों के लिए संदर्भ का काम करती है । जहां ज्ञान आत्मजन्य होता है वहां सहारा दूसरे का नहीं होता । भगवान महावीर के ये सामान्य प्रतीत होने वाले शब्द असामान्य योग्यता की मांग रखते है । तीन बिन्दुओं के कारण इन शब्दों का विशेष महत्त्व है ।
वीतरागता
छद्मस्थ मनुष्य की दृष्टि शुद्ध नहीं होती क्योंकि वह पूर्व में अर्जित कर्म, संस्कार और धारणाओं से काफी प्रभावित होती है। जब हर तत्त्व को राग-द्वेष, अच्छा-बुरा, अपना-पराया की दृष्टि से देखा जाता है तब सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। सत्य शब्द नहीं अनुभूति है। अतः पक्षपात से प्रदूषित चेतना के लिए सत्य अगम्य हो जाता है। वास्तविक पहचान धूमिल हो जाती है। उदाहरण के लिए दो व्यक्ति हैं। एक के लिए रसगुल्ला अत्यन्त ही स्वादिष्ट है व दूसरे को तो मानो उसके नाम से ही छींक आती है। प्रथम व्यक्ति के लिए रसगुल्ला अनुकूल है, अच्छा है, रुचिकर है व दूसरे के लिए रसगुल्ला प्रतिकूल और बेकार । एक ने रसगुल्ले को अच्छा बताया और दूसरे ने खराब , पर रसगुल्ला वास्तव में क्या है? अच्छी या बुरी तो धारणा होती है। रसगुल्ला तो रसगुल्ला है। किसी द्रव्य की वास्तविक पहचान के लिए यह अनिवार्य है कि दृष्टि महावीर की तरह राग-द्वेष से उपरत हो, सम्यक् हो, वीतराग हो। इस प्रकार वीतरागता, समदृष्टि भगवान को अधिकार देती है कहने का- ‘ऐसा मैं कहता हूं।’
केवलज्ञान
जब अपूर्ण सम्पूर्ण बन जाता है तब वह केवलज्ञान कहलाता है । अधूरा ज्ञान और एकांगी चिन्तन किसी भी बात की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगा देता है । ये ठीक उस न्यायाधीश की तरह है जो केवल एक पक्ष को सुनकर अपना निर्णय दे देता है जो बड़ी ही घातक बात है । प्रत्येक तत्त्व के अनन्त पहलू होते हैं । विविध पहलुओं का अवलोकन , अनुचिन्तन , समावेश ही अनेकान्त कहलाता है और अनेकान्त की उत्कृष्ट साधना ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही संभव हो सकती है । इसी पूर्णता के साधक थे भगवान महावीर , जो अपने केवलज्ञान से, सम्पूर्णज्ञान से
द्रव्यों के अनन्त-अनन्त पर्यायों को जानकर , अनुभव कर तत्त्व का निरूपण करते । यह उत्कृष्ट अनेकान्त की साधना भगवान महावीर को विश्वसनीयता देती है कहने की- ‘ ऐसा मैं कहता हूं ‘ ।
तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म का उदय
भले ही कोई वीतरागता हासिल कर ले या सर्वज्ञान भी प्राप्त कर ले , पर यदि श्रोता ही न हो , अमल करने वाला ही न हो , श्रद्धा करने वाला ही न हो तो पर-हित की दृष्टि से उसका क्या मूल्य रह जाएगा ? बस भगवान महावीर ने कहा ‘ ऐसा मैं कहता हूं ‘ और अनगिनत लोग प्रभावित हो धर्म को स्वीकारने के लिए तैयार हो गए , संयम में तत्पर हो गए, इसका क्या कारण है ? वह है तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उदय । यह भौतिक प्रभाव का निर्माण करता है । केवलज्ञान एवं वीतरागता आत्मा के गुण है परन्तु तीर्थ की स्थापना हेतु यह पर्याप्त नहीं । उसमें भौतिक गुणों की भी अपेक्षा होती है । यह तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उदय ही एक केवलज्ञानी को तीर्थंकर बनाता है । यह कर्म प्रातिहार्य , सुदृढ़ व आकर्षक शरीर और अतिशयों के द्वारा एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के निर्माण में भी सहायक बनता है । जिससे एक-एक शब्द का ओज श्रोता के लिए सहस्रगुणित हो जाता है ।
उपसंहार
वीतरागता , केवलज्ञान और तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उदय , ये तीन का संयोग भगवान महावीर की वाणी को निष्पक्ष , सत्य और प्रभावशाली बनाती है । अत: वे सच्चे अधिकारी थे यह कहने के लिए कि – ‘ ऐसा मैं कहता हूं ‘ ।