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ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम से ज्ञान में तरतमता पैदा होती है और उसके कारण ज्ञान के अनेक भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ये इसके मुख्य भेद होते हैं तथा अवग्रह, ईहा आदि मति के, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य आदि श्रुत के, हीयमान वर्द्धमान आदि अवधि के, ऋजुमति, विपुलमति आदि मनः पर्यव के अवान्तर भेद प्रभेदों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है।
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इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होती। क्योंकि वह सातवें गुणस्थान से आगे नहीं हो सकती, यहाँ औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व होती है। उपशम श्रेणी लेने वाले के उक्त दोनों प्रकार की सम्यक्त्व हो सकती है क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व होते हुए भी उपशम श्रेणी ली जा सकती है, उपशम श्रेणी वाला मोह कर्म की प्रकृतियों को दबाता जाता है।
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जैन तत्व दर्शन में गुणस्थान का बहुत बड़ा स्थान है अतः गुणस्थान क्या है इसका संक्षिप्त विवेचन यहाँ पर करना है। जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य श्री तुलसी ने कहा है कि “आत्मनः क्रमिक विशुद्धि गुणस्थानम्” अर्थात् कर्मों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से पैदा होने वाले पवित्र आत्म-गुणों के क्रमिक आविर्भाव को गुणस्थान कहते है। हमारा लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। ये गुणस्थान उस तक पहुँचने के लिए सोपान हैं।
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