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एक सामान्य व्यक्ति अपनी प्रत्येक जानकारी लिए दूसरे पर आश्रित रहता है । प्रत्येक कथन का कोई न कोई संदर्भ अवश्य होता है । कहा जाता है ‘मैंने सुना है कि’ , ‘सूत्रों के अनुसार’ , ‘ अमुक पुस्तक में पढ़ा’ , ‘पुराने लोग… Continue Reading “ऐसा मैं कहता हूं”
Evo4soul Meditation Resort के उद्घाटन का गरिमामय समारोह आज प्रातः काल गंगाशहर में संपादित हुआ। पवित्र जैन मंत्रों एवं स्रोतों की धुन के बीच आयोजित हुए इस समारोह में आचार्य तुलसी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष जैन लूणकरण छाजेड़ ने गंगा शहर में ध्यान केंद्र… Continue Reading “Evo4soul Meditation Resort का गरिमामय उद्घाटन समारोह।”
कोरोना के भयावह काल में अध्यात्मिक सकारात्मकता का एक नया प्रयोग….
कांदिवली, मुंबई में आयोजित मंत्र साधना सप्ताह में पीयूष कुमार नाहटा के वक्तव्य…
*फरीदाबाद में आयोजित भक्तामर कार्यशाला के अन्तर्गत दिए गए वक्तव्य अब यूट्यूब पर उपलब्ध।*
भक्तामर जैन परंपरा का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इसके आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्षों सहित इसकी चिकित्सा संबंधी उपयोगिताओं पर अगणित शोध कार्य हो चुके हैं।
The pursuit of keval-jnan through these rigorous practices cannot be a barren procedure. It’s purpose is to know the truth because the knowledge of the ultimate truth is conducive to the achievement of perfection.
“अनादिनिधन, तीर्थंकरों द्वारा प्रकाशित, गणधरों द्वारा मान्य, द्वादशांग-चतुर्दश पूर्व को धारण करने वाली सरस्वती जो की सत्यवादिनी है वह मुझमें उतरे” इस भाव के साथ इस मन्त्र का जप किया जाये तो सहज ही एक सुखद अहसास होता है।
स्नान करने के पश्चात हम शारीरिक रूप से खुद को तरोताजा महसूस करते हैं। आलस्य का प्रभाव भी कुछ हद तक कम हो जाता है। वहीँ जैन परंपरा में ज्ञान के अतिचारों में वर्णित अस्वाध्याय के कारणों— यथा मल-मूत्र, वीर्य रक्त आदि अशुभ तत्वों की विशुद्धि भी हो जाती है, जिनके रहने पर स्वाध्याय नहीं किया जा सकता।
चौदह गुणस्थान में नवमें तक सात कर्मों का (आयुष्य छोड़ कर) निरन्तर बन्धन होता है। दसवें में (आयुष्य, मोह बिना) छह कर्मों का निरन्तर बन्धन होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें में एक सात वेदनीय कर्म का बन्धन होता है। तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें तक आयुष्य का बन्धन होता है।
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ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम से ज्ञान में तरतमता पैदा होती है और उसके कारण ज्ञान के अनेक भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ये इसके मुख्य भेद होते हैं तथा अवग्रह, ईहा आदि मति के, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य आदि श्रुत के, हीयमान वर्द्धमान आदि अवधि के, ऋजुमति, विपुलमति आदि मनः पर्यव के अवान्तर भेद प्रभेदों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है।
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इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होती। क्योंकि वह सातवें गुणस्थान से आगे नहीं हो सकती, यहाँ औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व होती है। उपशम श्रेणी लेने वाले के उक्त दोनों प्रकार की सम्यक्त्व हो सकती है क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व होते हुए भी उपशम श्रेणी ली जा सकती है, उपशम श्रेणी वाला मोह कर्म की प्रकृतियों को दबाता जाता है।
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