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*फरीदाबाद में आयोजित भक्तामर कार्यशाला के अन्तर्गत दिए गए वक्तव्य अब यूट्यूब पर उपलब्ध।*
भक्तामर जैन परंपरा का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इसके आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्षों सहित इसकी चिकित्सा संबंधी उपयोगिताओं पर अगणित शोध कार्य हो चुके हैं।
चौदह गुणस्थान में नवमें तक सात कर्मों का (आयुष्य छोड़ कर) निरन्तर बन्धन होता है। दसवें में (आयुष्य, मोह बिना) छह कर्मों का निरन्तर बन्धन होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें में एक सात वेदनीय कर्म का बन्धन होता है। तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें तक आयुष्य का बन्धन होता है।
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ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम से ज्ञान में तरतमता पैदा होती है और उसके कारण ज्ञान के अनेक भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ये इसके मुख्य भेद होते हैं तथा अवग्रह, ईहा आदि मति के, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य आदि श्रुत के, हीयमान वर्द्धमान आदि अवधि के, ऋजुमति, विपुलमति आदि मनः पर्यव के अवान्तर भेद प्रभेदों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है।
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इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होती। क्योंकि वह सातवें गुणस्थान से आगे नहीं हो सकती, यहाँ औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व होती है। उपशम श्रेणी लेने वाले के उक्त दोनों प्रकार की सम्यक्त्व हो सकती है क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व होते हुए भी उपशम श्रेणी ली जा सकती है, उपशम श्रेणी वाला मोह कर्म की प्रकृतियों को दबाता जाता है।
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वृक्ष से गिरने वाला फल जब तक पृथ्वी पर नहीं आ जाता तब तक वह इस स्थिति मे रहता है जो वृक्ष और पृथ्वी दोनों से ही सम्बन्धित नहीं होती। वैसे ही सम्यक्त्व से च्युत होने वाला जब तक मिथ्यात्व में नहीं आता, एक ऐसी स्थिति में गुजरता है जो न तो सम्यक्त्व से सम्बन्धित होती है और न मिथ्यात्व से। फिर भी पूर्व सम्यक्त्व का यहाँ पर आस्वादन रहता है। अतः इसी अपेक्षा से इस अवस्था को सास्वादन सम्यक्त्व बतलाया गया है। यह भी विशुद्धि की अपेक्षा से गुणस्थान है, गिरने की अपेक्षा से नहीं। पतन तो मोह कर्म के उदय से होता है अतः उदय गुणस्थान नहीं विशुद्धि का जितना अंश है वह गुणस्थान है।
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